Thursday, December 31, 2009

मेरे आगामी उपन्यास एक थी गुलाब का संक्षिप्त परिचय

थार मरूस्थल के पूर्वी छोर पर स्थित मारवाड़ रियासत पर ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी से, रणबांकुरे राठौड़ों का शासन चला आ रहा था। 1753 ए डी से 1794 ए डी तक इस रियासत पर राठौड़ महाराजा विजयसिंह ने शासन किया। उस शताब्दी में राजपूताने में 41 साल की दीर्घ अवधि तक शासन करने वाला दूसरा राजा और कोई नहीं हुआ। वह एक प्रतापी और धर्मशील शासक था। मेवाड़ के महाराणाओं की व्यक्तिगत सुरक्षा करने के लिये उसकी सेना उदयपुर में तैनात रहती थी किंतु उसके शासन के समय में राजपूताना मराठा शक्ति के आक्रमण से बुरी तरह प्रभावित रहा। पेशवा बालाजी बाजीराव, उसका छोटा भाई रघुनाथ राव, पेशवा का प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस, जयप्पा सिंधिया, मल्हारराव होलकर, महादजी शिंदे, तुकोजी राव होलकर, लकवा दादा और अम्बाजी इंगले आदि मराठा सरदार उस समय उत्तर भारत में सक्रिय थे।

महाराजा विजयसिंह ने पूरे 41 साल तक इन मराठा सरदारों से युध्द किया। उसने मराठाें के विरुध्द काबुल के बादशाह तैमूरशाह, दिल्ली के बादशाह अली गौहर, बीकानेर, किशनगढ़ एवं जयपुर के महाराजाओं तथा अन्य रियासतों के शासकों, सामंतों, सरदारों, नवाबों तथा अमीरों को भी तैयार किया। महाराजा विजयसिंह कभी मराठों से हारा तो कभी जीता किंतु न तो मराठे उसे पूरी तरह जीत पाये न वह मराठों को राजपूताने से बाहर धकेल सका। उसने जयप्पा सिंधिया की छल से हत्या करवाई और महादजी शिंदे को तुंगा के मैदान में कड़ी पराजय का स्वाद चखाया किंतु अंत में महाराजा विजयसिंह, डांगावास के मैदान में मराठों से हारकर बुरी तरह टूट गया।

महाराजा विजयसिंह की एक पासवान थी गुलाबराय। उसे इतिहासकारों ने मारवाड़ की नूरजहां कहकर पुकारा है। वह इतनी सुंदर थी कि महाराजा विजयसिंह ने उसे एक साधारण नर्तकी से अपनी पासवान बनाया तथा उसे महारानी का दर्जा प्रदान किया। मारवाड़ रियासत के राठौड़ सरदारों ने इस नर्तकी को राज्य की महारानी मानने से मना कर दिया। फिर भी गुलाबराय का जादू जोधपुर रियासत के सिर चढ़कर बोला। उसने जोधपुर राज्य में मांस बेचने व खाने, शराब बेचने व पीने, शिकार खेलने व पशु वध करने आदि पर रोक लगा दी तथा कसाईयों को राज्य से बाहर निकाल दिया। जिन जागीदरों तथा सरदारों ने महाराजा के इस आदेश को नहीं माना, महाराजा ने भरे दरबार में उनकी हत्याएं करवाईं और ताकतवर सामंतों को छल से कैद करके मरवाया।

महाराजा विजयसिंह भगवान कृष्ण के बाल रूप का बड़ा भक्त था। गुलाबराय भी भगवान कृष्ण की भक्त थी। इसी कारण महाराजा विजयसिंह गुलाब की तरफ आसक्त (आकर्षित) हुआ था और दोनों का प्रेम दिनों दिन बढ़ता ही चला गया था। यदि किसी व्यक्ति ने गुलाबराय का अहित करने का प्रयास किया तो महाराजा ने उसे दण्डित किया किंतु सत्ता के मद में गुलाबराय दिनों दिन घमण्डी होती चली गई। उसने राज्य की सत्ता को अपने नियंत्रण में कर लिया। बहुत से सरदार उसके समर्थक हो गये और बहुत से सरदार उसके विरोध में उठ खड़े हुए। गुलाब ने इन सामंतों से हार नहीं मानी। वह इनसे लोहा लेती रही और आगे बढ़ती रही।

पासवान गुलाबराय ने महाराजा विजयसिंह के उत्ताराधिकारी के रूप में पहले तो अपने औरस पुत्र तेजकरणसिंह का, फिर दत्ताक पुत्र राजकुमार शेरसिंह का और अंत में मातृ-पितृ विहीन राजकुमार मानसिंह का चयन किया। इस कारण्ा जोधपुर रियासत का राजदरबार और महाराजा का रनिवास अनेक भयानक षड़यंत्रों से भर गया और कई सामंतों तथा राजकुमारों की हत्याएं हुईं। अंत में जोधपुर रियासत के सामंत महाराजा विजयसिंह से नाराज होकर जोधपुर दुर्ग से बाहर चले गये। जब महाराजा उन सरदारों को मनाने के लिये दुर्ग से बाहर निकला तो पीछे से उसके पौत्र राजकुमार भीमसिंह ने मेहरानगढ़ दुर्ग तथा राजधानी जोधपुर पर अधिकार जमा लिया। इस कारण महाराजा को लम्बे समय तक दुर्ग तथा राजधानी से बाहर रहना पड़ा। उधर राजकुमार भीमसिंह तथा उसके साथी सामंतों ने मिलकर गुलाबराय की हत्या कर दी। जब कई महीनों बाद महाराजा पुन: अपनी राजधानी में लौटा तो उसे गुलाब की हत्या के बारे में जानकारी हुई। उसने भीमसिंह को पकड़कर लाने के आदेश दिये किंतु भीमसिंह अपने साथी सामंतों के साथ राजधानी से दूर भाग गया। अपनी प्रेयसी गुलाब के शोक से दुखी होकर कुछ ही दिनों में महाराजा विजयसिंह ने भी प्राण त्याग दिये।

प्रस्तुत उपन्यास महाराजा विजयसिंह के काल में मारवाड़ रियासत में हुई घटनाओं तक सीमित है। इसका तानाबाना उत्तर भारत की राजनीति में महाराजा विजयसिंह की गतिविधियों तथा पासवान गुलाबराय के प्रति उसके अनन्य प्रेम को केन्द्र में रखकर बुना गया है। अठारहवीं शती में महाराजा विजयसिंह तथा गुलाबराय का एक साथ उपस्थित होना, भारतीय इतिहास की एक अनुपम मिसाल है किंतु महान व्यक्तित्वों के साथ अपवाद भी लगे ही रहते हैं। इन दोनों ऐतिहासिक चरित्रों के साथ भी ऐसा ही हुआ है।

राजस्थान के प्रथम इतिहासकार तथा राजपूताना के एजेंट टू दी गवर्नर जनरल कर्नल टॉड ने गुलाबराय के बारे में लिखा है कि गुलाब ने कई बार राजा विजयसिंह को जूतियों से मारा। नि:संदेह टॉड बरसों तक राजपूताना की रियासतों में घूमा था किंतु उसे राजपूत रियासतों की उज्जवल परम्पराओं एवं मर्यादाओं की पूरी जानकारी नहीं थी। सामंती परिवेश में यह संभव नहीं था कि कोई पासवान, अपने समय के सबसे महान, सबसे शक्तिशाली और सबसे प्रभावशाली महाराजा को जूतियों से मारे और फिर भी राजा उस पासवान को महारानी का दर्जा दिलवाने के लिये आतुर रहे। हैरानी यह देखकर होती है कि टॉड के बाद किसी इतिहासकार या लेखक ने टॉड के कथन का खण्डन करने का प्रयास नहीं किया।

प्रस्तुत उपन्यास में इन दोनों ऐतिहासिक चरित्रों के बारे में वास्तविक तथ्यों की शोध करके पूरा घटनाक्रम रोचक विधि से तैयार किया गया है। ताकि इस उपन्यास के माध्यम से इन दोनों का महान और उज्जवल चरित्र पाठकों के समक्ष आये और पाठक उस युग की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में महाराजा विजयसिंह और गुलाबराय की वास्तविकता को समझ सकें।

यह रोचक शैली में लिखा गया उपन्यास है जिसमें कथानक को आगे बढ़ाने के लिये चुटीले संवादों का सहारा लिया गया है तथा ऐतिहासिक तथ्यों की पूरी तरह से रक्षा की गई है।

उपन्यास के कुछ अंश

नव कोटि मारवाड़ के धणी

थार मरूस्थल के पूर्वी छोर पर ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी से, रणबांकुरे राठौड़ों का शासन चला आ रहा था। 1678 इस्वी में जमरूद के मोर्चे पर मारवाड़ रियासत के पन्द्रहवें राठौड़ राजा जसवंतसिंह के निधन के बाद औरंगजेब ने मारवाड़ रियासत को खालसा कर लिया अर्थात् प्रत्यक्षत: अपनी जागीर में सम्मिलित कर लिया। जब स्वर्गीय महाराजा की गर्भवती रानियाँ जमरूद से मारवाड़ को लौट रही थीं तब मार्ग में दोनाें रानियों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। उनमें से एक पुत्र दलथंभन तो मार्ग में ही काल का ग्रास बन गया किंतु दूसरा शिशु अजीतसिंह जीवित रहा जिसे राठौड़ सरदारों ने अपना राजा घोषित किया। औरंगजेब ने इस शिशुराजा तथा उसकी माताओं को छल से दिल्ली बुलाकर बंदी बना लिया। जब औरंगजेब ने शिशु-राजा की सुन्नत करके उसे मुसलमान बनाना चाहा तब दिवंगत महाराजा के विश्वस्त सिपाही मरने मारने पर उतारू हो गये।

राठौड़ दुर्गादास, खीची मुकुंदास आदि सामंतों ने शिशु-राजा को किसी तरह औरंगजेब की कैद से छुड़वा लिया। जसवंतसिंह की विधवा रानियों ने मर्दाना वेश पहनकर मुगल सिपाहियों का सामना किया और रणखेत रहीं। राठौड़ सैनिकों ने अपने दिवंगत महाराजा की महारानियों के पार्थिव शरीर यमुनाजी में बहाये और किसी तरह लड़ते भिड़ते दिल्ली से बाहर आ गये। राठौड़ों ने शिशु-राजा को मारवाड़ रियासत के दक्षिण में स्थित छोटी सी सिरोही रियासत की पहाड़ियों में छिपा दिया। औरंगजेब जीवन भर राठौड़ों के इस राजा को ढूंढता रहा किंतु राजा को पकड़ना तो दूर उसकी छाया तक को न छू सका।
अपने राजा को फिर से मारवाड़ की राजगद्दी दिलवाने के लिये राठौड़ सरदार उन्तीस बरस तक घोड़ों की पीठों पर बैठे रहे और मुगल थाने उजाड़ते रहे। मारवाड़ का चप्पा-चप्पा उनके घोड़ों की टापों से गूंजता रहा। औरंगजेब की मृत्यु होने पर यही अजीतसिंह जोधपुर के राजा हुए। जब फर्रूखसीयर मुगलों का बादशाह हुआ तो उसने महाराजा अजीतसिंह को विवश करके उनकी पुत्री इंद्रकुंवरी के साथ विवाह किया। महाराजा अजीतसिंह ने बेटी तो दे दी किंतु मन नहीं दिया। अवसर मिलते ही उन्होंने दिल्ली के लाल किले में फर्रूखसीयर की हत्या करवाई और इंद्रकुंवरी को जोधपुर लाकर शुध्दिकरण करके उसका दूसरा विवाह किया।

मुगल सान्निध्य के प्रभाव से, जयपुर नरेश के षड़यंत्र से और मारवाड़ के दुर्भाग्य से 23 जुलाई 1724 को अजीतसिंह के पुत्र बखतसिंह ने अपने बड़े भाई अभयसिंह के उकसाने पर, नींद में सोते हुए अपने पिता और उनकी पड़दायत गंगा की हत्या कर दी। महाराजा अजीतसिंह की मृत देह के साथ 6 रानियाँ, 20 दासियाँ, 9 उड़दा बेगणियाँ, 20 गायनें तथा 2 हुजूरी बेगमें सती हुईं। पिता की हत्या के बाद अभयसिंह और बखतसिंह ने मारवाड़ आपस में बाँट लिया। अभयसिंह जोधपुर का राजा हुआ और अभयसिंह नागौर का। जुलाई 1749 ईस्वी में महाराजा अभयसिंह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र रामसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा।

रामसिंह प्रतिभा-सम्पन्न राजा नहीं था तथा राठौड़ सरदारों के साथ बुरा बर्ताव करता था। इसलिये राठौड़ सरदारों के उकसाने पर रामसिंह के चाचा बखतसिंह ने मेड़ता के युध्द में उसे हराकर जून 1751 में जोधपुर की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। रामसिंह मराठों की शरण में पहुँचा किंतु मराठे उसे जोधपुर नहीं दिलवा सके। सितम्बर 1752 में महाराजा बखतसिंह की भी मृत्यु हो गई। माना जाता है कि किशनगढ़ रियासत की राठौड़ राजकुमारी एजनकंवर जो कि जयपुर नरेश माधोसिंह को ब्याही गई थी, ने एक विषबुझी पोषाक उपहार के रूप में महाराजा बखतसिंह को भेजी। 21 सितम्बर 1752 के दिन, इस विषबुझी पोषाक को पहनने से महाराजा बखतसिंह की मृत्यु हो गई। उस समय महाराजा का पुत्र विजयसिंह मारोठ के सैनिक शिविर में था।

मदमत्त मरहठे

1526 इस्वी के बाद दिल्ली की जिन गलियों में मुगलों के रौब-दाब और शानोशौकत के डंके बजते थे और जिनकी धूम दक्खिन में भी पूरी बुलंदी के साथ सुनी जाती थी, उन डंकों की आवाजें 1680 ईस्वी के पश्चात् धीमी पड़नी लगी थीं। छत्रपति शिवाजी तथा मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के हाथों बुरी तरह से पिटे हुए, बददिमाग, बूढ़े और अशक्त औरंगजेब ने मराठों को दिल्ली की तरफ बढ़ने से रोकने के लिये मारवाड़ के राजा जसवंतसिंह, ढूंढाड़ के राजा सवाई जयसिंह और बीकाणा के राजा कर्णसिंह को मराठों के विरुध्द झौंका। इस प्रकार मराठा शक्ति के साथ राजपूत शासकों का पहला परिचय मुगल सेनापतियों की हैसियत से युध्द के मैदानों में हुआ।

इन राजपूत राजाओं ने अपने लाखों सिपाही युध्द के मैदानों में कटवा डाले फिर भी वे, मराठों की टिड्डी सेनाओं को दिल्ली की ओर बढ़ने से नहीं रोक सके। 1706 ईस्वी में मराठों ने दक्षिणी गुजरात में पहली बार मुगल सेना को परास्त किया। इस प्रकार औरंगजेब ने अपने जीवन के आखिरी सालों में अपनी ऑंखों से मराठों को दिल्ली की ओर बढ़ते हुए देखा।

अठारहवीं सदी के आरंभ में छत्रपति के स्थान पर पेशवा का प्रभुत्व बढ़ना आरंभ हुआ और उसके द्वारा नियुक्त सिन्धिया, होलकर, गायकवाड़ तथा भौंसले, मुगलों के पराभव से उत्पन्न हुई रिक्तता को भरने के लिये आगे आये किंतु उनकी इन आकांक्षाओं को पूरा करने में राजपूताना की मारवाड़, बीकाणा, ढूंढाड़ और कोटा रियासतें अब भी आड़े आ रही थीं।

1711 ईस्वी में मराठे प्रथम बार मेवाड़ में प्रविष्ठ हुए। मराठों के वेग को रोकने के लिये 1713 ईस्वी में मुगल बादशाह फर्रुखसीयर ने जयपुर के शासक सवाई जयसिंह को गुजरात का सूबेदार बनाया किंतु जब महाराजा जयसिंह मराठों के समक्ष असफल हो गया तब फर्रुखसीयर ने जोधपुर के शासक अजीतसिंह को गुजरात की सूबेदारी सौंपी। महाराजा अजीतसिंह के लिये भी यह संभव नहीं था कि वे मराठों को आगे बढ़ने से रोक सकें। मराठे उसी गति से आगे बढ़ते रहे। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने जोधपुर के अगले शासक महाराजा अभयसिंह को गुजरात की सूबेदारी सौंपी ताकि वे मराठों को गुजरात में ही रोक सकें किंतु अपने पिता अजीतसिंह की तरह महाराजा अभयसिंह को भी इस कार्य में सफलता नहीं मिली और मराठे आगे बढ़ते ही चले गये।

1735 इस्वी में राजपूताने की समस्त बड़ी रियासतों ने पेशवा को चौथ देना स्वीकार कर लिया। इनमें जोधपुर रियासत भी सम्मिलित थी। यही वह समय था जब राजपूताना की रियासतों में मराठों के प्रतिनिधि स्थाई रूप से रहने लगे और रियासत की गतिविधियों की राई-रत्ताी और तिल-तिल की सूचना मराठों तक पहुँचाने लगे। इसके बाद के पच्चीस सालाें में मराठे लगातार दिल्ली की ओर बढ़ते रहे और मुगल सत्ताा शनै:-शनै: अस्ताचल की ओर लुढ़कती रही।

1739 ईस्वी में जब नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया तो मुगलों की दुर्दशा की कलई पूरे देश के समक्ष खुल गई। मराठों ने इसे उचित समय समझकर दिल्ली को और तेज झटके दिये जिससे विवश होकर बादशाह ने दक्खिन के छ: प्रांतों की चौथ वसूली के अधिकार मराठों को दे दिये।

1761 ईस्वी में जब अहमदशाह अब्दाली ने हिन्दुस्थान की भूमि पर खून की होली खेली, तब तक मुगल साम्राज्य की ऐसी दुर्दशा हो चुकी थी कि बादशाह आलमगीर, अहमदशाह अब्दाली के विरुध्द छोटी-मोटी सेना भी नहीं भेज सका। इसलिये मराठों ने उसकी ओर से पानीपत के मैदान में मोर्चा संभाला। मराठे अब्दाली की सेनाओं को गाजर मूली समझते थे, इसलिये युध्द के मैदान में अपनी पत्नियों, रखैलों और दासियों को साथ लेकर पहुंचे। अब्दाली ने एक लाख मदमत्त मरहठों को बड़ी बेरहमी से मौत के घाट उतारा। पूरा भारत विधवा मराठनों के करुण क्रंदन से गूंज उठा। इसके बाद अब्दाली ने हाथी पर बैठकर दिल्ली में प्रवेश किया।

अब्दाली ने आलमगीर की बादशाहत को लालकिले की एक साधारण कोठरी तक सीमित कर दिया। उससे तख्ते ताउस छीनकर, लकड़ी का एक साधारण पाट पकड़ा दिया। अब्दाली तथा उसके सैनिकों ने बादशाह आलमगीर की औरतों और बेटियों को लाल किले के महलों में नंगी करके उनके साथ दिन दहाड़े बलात्कार किये और आलमगीर, अब्दाली के विरुध्द कुछ नहीं कर सका। जब अब्दाली लौट गया तब मुगल शाहजादियां पेट की भूख मिटाने के लिये दिल्ली की गलियों में मारी-मारी फिरने लगीं। वेतन नहीं मिलने के कारण मुगल सिपाहियों और लाल किले के नौकरों ने दिल्ली की गलियों में फिरने वाली कुतियाओं के नाम मुगल शहजादियों के नाम पर रख दिये।

पानीपत के मैदान में एक लाख मराठों को काट डालने के पश्चात् उत्तर भारत में यह आशा जगी थी कि अब मराठों के आतंक से मुक्ति मिल जायेगी किंतु यह आशा शीघ्र ही निराशा में बदल गई जब मराठे, शीघ्र ही फिर से टिड्डी दलों की भांति उत्तर भारत के मैदानों में छा गये और बलपूर्वक चौथ वसूलने लगे।

आरंभ में तो सिन्धिया, होलकर और पेशवा, राजपूताने की रियासतों में चौथ वसूली करने तक सीमित रहे किंतु वे इतने बड़े लुटेरे और धन के इतने बड़े लालची थे कि शीघ्र ही चौथ की राशि प्राप्त करने की सीमित इच्छा के दायरे से बाहर निकलकर, राजपूत रियासतों के साथ विवेकहीन अनुबंध करके उनके माध्यम से अपरिमित धन ऐंठने लगे। उन्होंने राजपूताना रियासतों में चल रही अन्तर्कलहों से लाभ उठाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने दिया।

मराठों के उत्तर भारत में सक्रिय होने से पहले राजपूताना की रियासतों में परम्परागत सामंतों का ही शासन में वर्चस्व था किंतु मराठों ने उत्तर भारत में नौकरशाही की व्यवस्था को नया स्वरूप दिया। उनके वकील प्रत्येक रियासत में नियुक्त रहते थे जो सामान्यत: कुलीन ब्राह्मण वर्ग से थे। इन वकीलों की नियुक्ति के बदले राजपूताना की रियासतों को भी मराठा सरदारों के पास अपने वकील रखने पड़ते थे जो मराठा सरदारों के सम्पर्क में रहकर अपनी रियासत के हितों का संरक्षण करते थे।

मारवाड़ रियासत में भी सामंतशाही के साथ-साथ नौकरशाही, काफी मजबूत हो गई थी। ये लोग मुत्सद्दी तथा मुसाहिब कहलाते थे। ये भी सामंतों के समान, राजा के साथ बैठकर भोजन करते थे। अंतर केवल इतना था कि राजा के सामंत, राजा के समान असली हड्डियाँ चबाते थे जबकि मुत्सद्दी, शाकाहारी ओसवाल महाजन होने से चांदी की हड्डियाँ दाल में डलवाते थे और जब राजा असली हड्डी चूसता था तब ये मुत्सद्दी, चांदी की नकली हड्डियाँ मुँह में लेकर राजा के प्रति स्वामिभक्ति और आदर प्रकट करते थे।

राज्य के सामंत प्राय: अपनी जागीर में रहते थे तथा युध्द के समय राजा के द्वारा बुलाये जाने पर अथवा अवसर विशेष पर परम्पराओं के निर्वहन के लिये राजदरबार में उपस्थित होते थे, जबकि मुत्सद्दी और मुसाहिब हर समय राजा के निकट बने रहते थे। इस कारण सामंतों के स्थान पर वे राजा के अधिक निकट माने जाते थे। यही कारण था कि राज्य का मुत्सद्दी वर्ग, परम्परागत सामंतों के विरुध्द खुलकर मोर्चा लेने लगा था। यहाँ तक कि राज्य के उत्ताराधिकार के प्रश्न को भी प्राय: यही मुत्सद्दी वर्ग हल करता था।

नया महाराजा

मरूधरपति बखतसिंह की अचानक मृत्यु होने पर राठौड़ सेनापति हक्के-बक्के रह गये। जोधपुर का अपदस्थ महाराजा रामसिंह पूरे मारवाड़ में उत्पात मचा रहा था। दुर्दान्त मरहठे उसके साथी बने हुए थे। मारवाड़ के बहुत से सरदार और सामंत भी रामसिंह का पक्ष लेकर विद्रोह पर उतारू थे। इस प्रकार मारवाड़ में चारों तरफ लूटमार मची हुई थी। फिर भी वे बखतसिंह के नेतृत्व में मराठों से जमकर मोर्चा ले रहे थे। बखतसिंह की मृत्यु के कारण अचानक बदली हुई परिस्थिति में राठौड़ों ने मारोठ के सैन्य शिविर में ही राजकुमार विजयसिंह को पाट बैठाकर उसका राजतिलक किया और नये महाराजा को लेकर तत्काल राजधानी जोधपुर के लिये चल पड़े। उन्हें भय था कि कहीं उनके जोधपुर पहुँचने से पूर्व मराठे अपदस्थ महाराजा रामसिंह को लेकर जोधपुर न पहुँच जायें।

उधर जब राठौड़ों के स्वर्गीय महाराजा अजीतसिंह के पुत्र राजवी किशोरसिंह ने सुना कि उसका भाई महाराजा बखतसिंह नहीं रहा, तब उसने नये महाराजा विजयसिंह और उसके सरदारों को जोधपुर के लिये प्रस्थान करने से रोकने के अभिप्राय से भिणाय क्षेत्र में लूटमार आरंभ कर दी। यह सूचना पाकर महाराजा विजयसिंह ने रास के ठाकुर केसरीसिंह उदावत को भिणाय के लिये रवाना किया तथा स्वयं जोधपुर की तरफ बढ़ता रहा। केसरीसिंह ने भिणाय पहुँचकर राजवी किशोरसिंह को मार डाला और स्वयं भी जोधपुर के लिये रवाना हो गया।

उन दिनों चाखू पड़ियाल का ठाकुर जोगीदास पातावत भी फलौदी के गढ़ पर अधिकार करके अपदस्थ राजा रामसिंह के पक्ष में लड़ाई लड़ रहा था। नये महाराजा विजयसिंह ने मारवाड़ रियासत के शासन को पूरी तरह अपने अधीन करने के लिये जोगीदास का दमन करना भी आवश्यक समझा। महाराजा ने जैसलमेर के महारावल अखैराज का सहयोग लेकर फलौदी का दुर्ग बारूद से उड़ा दिया। जोगीदास पातावत अपने भाई तिलोकसी सहित दुर्ग में ही मारा गया। इन दो विजयों के बाद महाराजा विजयसिंह ने जोधपुर के गढ़ में प्रवेश किया। 31 जनवरी 1753 को उनके राज्यारोहण का समारोह बड़ी धूमधाम से मनाया गया।

काकड़की की पराजय

जिस समय जोधपुर के निष्कासित महाराजा रामसिंह को महाराजा बखतसिंह के निधन का समाचार मिला, उस समय वह मंदसौर में था। उसके भाग्य से उन्हीं दिनों पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने छोटे भाई रघुनाथ राव, जयप्पा सिंधिया तथा मल्हारराव होलकर को उत्तर भारत की रियासतों से चौथ वसूली के लिये भेजा। रामसिंह ने इस सुनहरे अवसर को पहचाना और मल्हारराव होलकर से सम्पर्क साधा। होलकर ने यह कार्य जयप्पा सिंधिया को सौंपा।

जयप्पा अपने छोटे भाई दत्तााजी सिन्धिया के साथ दिल्ली से नारनौल, रेवाड़ी, सांभर होता हुआ अजमेर की ओर बढ़ा। अजमेर उन दिनों जोधपुर के राठौड़ों के अधिकार में था। रामसिंह, जयप्पा सिन्धिया के साथ लगा हुआ था। उसने मार्ग में किशनगढ़ तथा आसपास के इलाकों को लूट लिया।

जब महाराजा विजयसिंह को जयप्पा सिन्धिया के आने का समाचार मिला तो महाराजा ने राठौड़ों की राजधानी जोधपुर से लगभग 60 मील दूर मेड़ता पहुँचकर वहाँ उन्हें रोकने का निर्णय लिया। महाराजा ने अपनी सहायता के लिये बीकानेर और किशनगढ़ के राठौड़ राजाओं को भी बुलवा लिया। महाराजा विजयसिंह ने अजमेर नगर में नियुक्त सेना को भी मेड़ता बुलावा लिया किंतु बीठली गढ़ अपने दुर्गपति के नियंत्रण में ही रखा।

सिंधिया ने राठौड़ों द्वारा रिक्त किये गये अजमेर नगर पर अधिकार करके पुष्कर में आकर अपने डेरे जमाये ताकि घोड़ों और ऊँटों को पानी की कमी नहीं रहे। इसके बाद वह तेज गति से मेड़ता की ओर बढ़ा। मार्ग में गांगरड़ा गांव के निकट दोनों राठौड़ों और मराठों में छोटी सी मुठभेड़ हुई जिसमें राठौड़ों को नुक्सान उठाना पड़ा। जब जयप्पा सिंधिया की सेनाएं मेड़ता के निकट पहुँची तो महाराजा विजयसिंह ने मेड़ता से आगे बढ़कर काकड़की गांव के निकट तलवारों की धार पर मराठों का स्वागत करने का निश्चय किया। महाराजा स्वयं सेना के हरावल में रहा और उसने अपने दोनों मित्र राठौड़ राजाओं को अपने दायें-बायें रखा।

14 सितम्बर 1754 की दोपहर में जब इतनी भीषण गर्मी पड़ रही थी कि सफेद हिरण भी झुलसकर काले पड़ चुके थे, हिरणखुरी गांव के पास मराठों को राठौड़ों का तोपखाना दिखाई दिया। इस विशाल तोपखाने को देखकर मराठों के प्राण सूख गये। उन्होंने तुरंत राठौड़ों के सामने का मार्ग खाली कर दिया और अपनी घुड़सेना को दो भागों में बांटकर राठौड़ों के दायें-बायें हो गये। सामने का मार्ग खाली देखकर विजयसिंह तेजी से आगे बढ़ा। उसे पता नहीं था कि मराठे उसकी सेना को दोनों पार्श्वों से घेर रहे हैं। इधर महाराजा युध्द की चाह में आगे बढ़ा जा रहा था और उधर उसके तोपखाने को लेकर चल रहे तोपगाड़ी वालों ने मार्ग में एक तालाब को देखकर महाराजा को सूचित किये बिना अपने बैल, तोपगाड़ियों से खोल दिये और बैलों को पानी पिलाने के लिये रुक गये।

महाराजा यही समझता रहा कि तोपखाना उसके साथ चल रहा है और मराठे अभी उससे दूर हैं जबकि मराठे उसे दोनों पर्श्वों से घेर चुके थे और तोपखाना पीछे रह गया था। मराठा घुड़सवार पार्श्व से सारी गतिविधियों को सावधानी पूर्वक देख रहे थे। जैसे ही तोपखाने और महाराजा के बीच पर्याप्त दूरी हो गई, मराठा घुड़सवार दोनों पार्श्वों से निकलकर तेजी से राठौड़ों के तोपखाने पर झपटे।

मराठों को सन्निकट देखकर तोपगाड़ी हांकने वालों ने चाहा कि वे अपने बैलों को तोपगाड़ी में जोतकर आगे बढ़ें किंतु मराठों ने फुर्ती से तोपखाने पर अधिकार कर लिया। यह देखकर राठौड़ों की चंदावल सेना मराठों पर झपटी। उधर महाराजा विजयसिंह को अपने आदमियों की मूर्खता और मराठों की कारस्तानी का पता चला किंतु परिस्थिति पर शोक करने का समय न जानकर वह अपनी हरावल सेना के साथ पीछे मुड़कर तेजी से मराठों पर झपटा।

इस प्रकार दोनों पक्षों में तोपखाने पर अधिकार करने को लेकर भयानक संघर्ष छिड़ गया। राठौड़ों ने प्रचण्ड वेग से आक्रमण करके मराठों को दूर तक खदेड़ दिया किंतु तब तक काफी संख्या में तोपगाड़ियों को खींचने वाले बैल मारे गये और तोपों को खींचकर ले जाना कठिन हो गया।

उसी समय जयप्पा सिन्धिया ने महाराजा की मुख्य सेना को आ घेरा। अब स्थिति यह बन गई कि चारों तरफ मराठे थे और बीच में तोपखाने को घेर कर राठौड़ों की सेना खड़ी थी। इस कारण तोपखाने को काम में लेना संभव नहीं रह गया। मुश्किल से हाथ आये इस अवसर को मराठे हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। राठौड़ वीर भी युध्द भूमि में एक साथ तीन राठौड़ राजाओं को शत्रुओं से घिरा हुआ देखकर मरने मारने पर उतारू हो गये। भयानक रक्तपात हुआ। पूरी भूमि लोथों से भर गई और आकाश में चीलें मण्डराने लगीं। देखते ही देखते गीदड़ों की टोलियाँ मृत सैनिकों के शवों को खाने के लिये जंगल से निकल आईं।

काफी देर तक हुए भीषण रक्तपात के बाद राठौड़ों की सेना के पाँव उखड़ने लगे। वे बड़ी संख्या में अपने साथियों को खो चुके थे। अब अधिक समय तक मैदान में टिके रहने का अर्थ था राठौड़ वीरों का सर्वनाश। इसलिये उन्होंने रणक्षेत्र से हटना आरंभ किया। जयप्पा सिंधिया को इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। उसने अपनी घुड़सवार सेना का एक भाग केवल इसी कार्य के लिये सुरक्षित रखा था कि जब राठौड़ सैनिक मैदान से हटने लगें तो मराठा सैनिक दूर तक उनका पीछा करें तथा यथा संभव उनका संहार करें। महाराजा विजयसिंह मराठों की रक्षित अश्व सेना का प्रतिरोध नहीं कर पाया। उसके लिये रणक्षेत्र में टिके रहना प्रतिपल भारी होता जा रहा था। उसने अपने मित्र राठौड़ राजाओं और सामंतों के साथ रणक्षेत्र छोड़ने का निर्णय लिया और मेड़ता की ओर खिसकना आरंभ किया।

मराठों की रक्षित अश्व सेना ने युध्द क्षेत्र से निकल रहे राठौड़ राजाओं पर पीछे से भयानक आक्रमण किया। पाली का ठाकुर प्रेमसिंह चांपावत इस समय अपने स्वामी के नमक का ऋण चुकाने के लिये सामने आया। उसने अपनी सेना लेकर महाराजा विजयसिंह और मराठों के बीच तलवारों की दीवार खड़ी कर दी। जब तक मराठे इस दीवार को लांघ कर आगे बढ़ पाये तब तक महाराजा विजयसिंह और उसके साथी राठौड़ राजा सुरक्षित रूप से मेड़ता पहुँच चुके थे। प्रेमसिंह चांपावत वहीं रणखेत रहा।

मेड़ता पहुँच कर भी महाराजा विजयसिंह निश्चिंत नहीं हो सका। उसका तोपखाना काकड़की के पास छूट चुका था। उसके लगभग सारे बड़े सरदार मारे जा चुके थे। मराठे अब उससे केवल एक रात दूर रह गये थे। प्रात: होते ही मराठों का आ धमकना निश्चित था। मेड़ता का मालकोट, राठौड़ों की रक्षा करने में असमर्थ था। इसलिये महाराजा विजयसिंह ने निर्णय लिया कि वह मालकोट की बजाय नागौर के दुर्ग में मराठों के विरुध्द अगला मोर्चा बांधेगा।

रात्रि के अंतिम प्रहर में तीनों राठौड़ राजाओं ने मालकोट छोड़ दिया। किशनगढ़ के राठौड़ महाराजा बहादुरसिंह ने तो वहीं से अपनी राजधानी किशनगढ़ की राह ली जबकि बीकानेर महाराजा गजसिंह, ताऊसर तक महाराजा विजयसिंह और साथ गये। यहाँ से नागौर का दुर्ग केवल तीन मील दूर रह गया था। महाराजा गजसिंह ने अपने कुटुम्बी राठौड़ राजा को सुरक्षित हुआ जानकर ताऊसर से ही बीकानेर के लिये विदा ली। वह चाहता तो था कि वह भी नागौर दुर्ग में रुककर महाराजा विजयसिंह का साथ दे किंतु उसे भय था कि ईश्वर न करे, यदि दुर्दान्त मराठे नागौर का दुर्ग भी गिरा दें तो कम से कम बीकानेर के दुर्ग की छत तो राठौड़ों के सिर पर बनी रहे।

दुर्दिन

दिन निकलते ही जयप्पा सिंधिया ने मालकोट को घेर लिया। विजयसिंह के आदमी मालकोट को भीतर से बंद करके बैठे हुए थे। इसलिये काफी देर तक सिंधिया को पता नहीं चल सका कि पंछी तो रात के अंधेरे में ही उड़ चुके, खाली पिंजरा ही शत्रु को भरमा रहा है। जब तक सिंधिया को वास्तविकता का ज्ञान हुआ तब तक तीनों राठौड़ राजा सुरक्षित रूप से अपने गंतव्यों तक पहुँच चुके थे। सिंधिया ने क्रोध में भरकर मेड़ता को लूट लिया और वहाँ अपना थाना स्थापित करके नागौर के लिये चल पड़ा। वह महाराजा विजयसिंह को संभलने का अवसर नहीं देना चाहता था।

उधर महाराजा विजयसिंह ने एक भी क्षण व्यर्थ गंवाये बिना, अपने सैनिकों को नागौर दुर्ग की मरम्मत करने पर लगा दिया और जितनी अधिक मात्रा में रसद सामग्री एकत्रित करना संभव हो पाया, उसे दुर्ग में एकत्रित करके भण्डारों में रखवा दिया। उसके आदमी तेजी से गोला बारूद भी जुटाने लगे। महाराजा जानता था कि इस बार की लड़ाई राठौड़ों का अस्तित्व बचाने के लिये होगी। इस लड़ाई के दूरगामी परिणाम होंगे। या तो राठौड़ राजपूताने की राजनीति के परिदृश्य से सदैव के लिये हट जायेंगे या फिर यहाँ से वे अपनी सफलताओं का नया इतिहास लिखेंगे।

अभी अधिक दिन नहीं बीते होंगे कि जयप्पा सिंधिया का तोपखाना नागौर तक आ धमका। जयप्पा ने नागौर का मैदानी दुर्ग चारों ओर से घेर लिया। अहिच्छत्रपुर के नाम से विख्यात राठौड़ों का यह पुराना दुर्ग था। उतना ही पुराना, जितने कि मण्डोर और जालोर के दुर्ग थे। यदि जोधपुर दुर्ग राठौड़ों के सिर का मुकुट था तो नागौर दुर्ग राठौड़ों की नाक था। मराठे इसी नाक तक आ पहुँचे थे।

तोपखाना नागौर पहुँच जाने के बाद जयप्पा ने अपनी सेना के चार भाग किये। एक सेना को उसने नागौर दुर्ग तक आने के समस्त रास्तों पर नियत किया जिससे दुर्ग के भीतर रसद, हथियार, गोला-बारूद और सैनिक न पहुँचने पायें। इसके बाद उसने अपने पुत्र जनकोजी के नेतृत्व में मराठों की एक सेना राठौड़ों की राजधानी जोधपुर के लिये रवाना की। जयप्पा ने एक सेना फलौदी के लिये तथा एक सेना जालोर के लिये भी रवाना की ताकि राठौड़ों से ये दुर्ग छीनकर महाराजा को घुटने टेकने के लिये विवश किया जा सके।

यह एक भयानक योजना थी। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि राठौड़ों की राजधानी सहित सारे प्रमुख दुर्ग घेर लिये जायें और राठौड़ों के राजा को राजधानी से दूर, नागौर के दुर्ग में अवरुध्द कर दिया जाये। इससे सम्पूर्ण राठौड़ प्रभुसत्ताा ही खतरे में पड़ गई थी। इस प्रकार दुर्दान्त मराठा सेनापति जयप्पा सिन्धिया ने अपनी चारों सेनाओं को अलग-अलग काम पर लगा दिया और स्वयं महाराजा विजयसिंह को अहिच्छत्रपुर से बाहर निकालने का उपाय करने लगा।

जयप्पा के पुत्र जनकोजी सिंधिया ने नागौर से निकलकर जोधपुर का गढ़ आ घेरा। उसने गढ़ पर बारूद और अग्नि की बरसात कर दी किंतु गढ़ में स्थित सूरतसिंह चांपावत तथा उसके साथियों ने इस अग्नि वर्षा की परवाह नहीं की और जनकोजी जोधपुर गढ़ को हाथ नहीं लगा सका। फिर भी वह गढ़ को घेर कर बैठा रहा।

जालौर की तरफ गई हुई मराठा सेना जालौर नगर पर अधिकार करने में सफल रही किंतु जालौर का गढ़ नहीं ले सकी। वह कनकाचल पहाड़ी की तलहटी में डेरा जमा कर बैठ गई। छोटा पंछी भी उस रास्ते से होकर दुर्ग तक नहीं पहुंच सकता था। उधर अजमेर नगर पर भी मराठों की जो सेना अधिकार किये हुए बैठी थी, कुछ समय बाद वह गढ़ बीठली पर अधिकार करने में सफल रही।

इस प्रकार महाराजा विजयसिंह के पास अब केवल नागौर और जोधपुर के गढ़ रह गये। जब दिल्ली में स्थित रघुनाथराव, मल्हारराव होलकर तथा सखाराम बापू आदि मराठा सरदारों ने सुना कि जयप्पा ने नागौर के दुर्ग में राठौड़ों के महाराजा को घेर रखा है तब वे भी बड़ी संख्या में मराठों सैनिकों को एकत्रित करके नागौर के लिये रवाना हो गये।

यह मारवाड़ के लिये सचमुच बुरे दिन थे। चारों दिशाओं से शत्रु सेनाएं काले बादलों की तरह उमड़-घुमड़ कर आ रही थीं। दु:ख की ये काली बदलियाँ सरलता से मारवाड़ और महाराजा विजयसिंह का साथ छोड़ने वाली नहीं थी।

उदयपुर के महाराणा तक भी ये सारे समाचार पहुँचे। उन्होंने सलूम्बर के रावत जैतसिंह चूण्डावत को अपना दूत बनाकर मराठों के पास भेजा ताकि दोनों पक्षों में समझौता करवाया जा सके। जैतसिंह ने नागौर पहुँचकर दोनों पक्षों से सम्पर्क किया। उसके कहने पर महाराजा विजयसिंह ने विजैभारती और राजसिंह चौहान को जयप्पा से संधि वार्ता करने के लिये नियत किया। विजयसिंह ने मराठों के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि मराठे मारवाड़ छोड़कर चले जायें तो उन्हें महाराजा की ओर से पचास लाख रुपये दिये जायेंगे तथा अपदस्थ महाराजा रामसिंह को मारवाड़ रियासत में सम्मानजनक जागीर दे दी जायेगी।

मराठों ने महाराजा के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उनकी जिद थी कि वे जोधपुर के अपदस्थ महाराजा रामसिंह को फिर से जोधपुर की गद्दी पर बैठायेंगे जबकि राठौड़ों की जिद थी कि हमारा राजा विजयसिंह ही होगा, निकम्मा और अयोग्य रामसिंह कदापि नहीं। महाराजा विजयसिंह ने दिल्ली से नागौर की तरफ बढ़े चले आ रहे रघुनाथराव से भी सम्पर्क किया। जब जयप्पा सिंधिया को इस बात का पता चला तो वह महाराजा के दूतों पर बुरी तरह बिगड़ा और संधि वार्ता की प्रक्रिया बंद कर दी। जब रघुनाथराव और मल्हारराव होलकर को सिंधिया के इस रूखे व्यवहार का पता चला तो वे रुष्ट होकर, मारवाड़ आने की बजाय रूपनगर के लिये मुड़ गये। इससे महाराजा ने चैन की सांस ली और जयप्पा से छुटकारा पाने का उपाय ढूंढने लगा।

महाराजा विजयसिंह को नागौर दुर्ग में आये हुए अब नौ माह हो चुके थे। दुर्ग में रसद सामग्री दिन प्रति दिन कम होते हुए लगभग समाप्त होने को थी। महाराजा की चिंता का पार न था। मारवाड़ हाथ से जाती दिख रही थी और शत्रु के शमन का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। जब घर में दरार होती है तो शत्रु उतनी ही आसानी से उसमें घुसपैठ कर लेते हैं जितनी आसानी से इस समय मराठे मारवाड़ में घुसकर बैठ गये थे। अपदस्थ महाराजा रामसिंह और नये महाराजा विजयसिंह की लड़ाई का लाभ दुर्दान्त मराठे उठा रहे थे और मारवाड़ विनाश के कगार पर आ पहुँची थी। यह निश्चित था कि यदि कुछ ही दिनों में कोई चमत्कार नहीं हुआ तो मारवाड़ को मराठों के मुँह में जाने से नहीं बचाया जा सकता था।

अणदाराम की वडारण

गोल चेहरा, तीक्ष्ण नासिका, नैसर्गिक गह्वर युक्त उन्नत चिबुक और भरे हुए कपोल! रंग ऐसा जैसे किसी ने मक्खन में गुलाब पीस दिये हों। देखने वाले हैरान रह जाते, लड़की है या रूप की पिटारी! यवन देश की राजकुमारियों जैसे उसके सुनहरे केशों और मयूरी जैसी पतली और लम्बी ग्रीवा को देखकर तो हर कोई स्तम्भित रह जाता। मत्स्याकार नीली ऑंखों में काजल की स्थूल रेखाएँ बड़े-बड़े ज्योतिषियों को विस्मय में डाल देतीं। क्या शनि ने मीन में वास किया है! जब तक वे इस युति पर कुछ विचार कर पाते, गुलाब आगे बढ़ जाती। काफी देर तक सोचने के बाद ज्योतिषी केवल इतना कह पाते- अवश्य ही मीन का शनि इसे राजयोग देगा।

दर्शक की ऑंखों में लबालब भरी हैरानी से पूर्णत: असंपृक्त सेठ अणदाराम की वडारण गुलाब, अपनी सुदीर्घ ग्रीवा को विशेष मुद्रा में इधर-उधर घुमाती हुई सर्र से आगे निकल जाती। जैसे कोई मयूरी, उपवन के किसी कुंज की ओट से अचानक प्रकट होकर तेजी से दूसरे झुरमुट की ओर उड़ गई हो। जब वह सेठ अणदाराम भूरट की हवेली से गंगश्यामजी के मंदिर के लिये निकलती तो मार्ग पर उसे देखने वालों की भीड़ सी लग जाती। कुछ युवक तो काफी देर पहले ही मार्ग पर आ जमते मानो द्वितीया के चन्द्रमा के उदय होने की प्रतीक्षा कर रहे हों।

जब वह हवेली से बाहर निकलकर पथरीले और किंचित् सर्पिलाकार मार्ग पर दिखाई देती तो बहुत से विकारी नेत्र मर्यादा भूलकर अपलक उसे निहारने लगते। बहुत से लोग उत्सुकतावश उन युवकों को देखने के लिये खड़े हो जाते जो अणदाराम की हवेली से निकलने वाले चंद्रमा की प्रतीक्षा में, पथ पर विकल मुद्रा में खड़े होते। गुलाब भी उन लोगों को अत्यंत विस्मय से देखती, क्या देखते हैं ये लोग!

कौतूहल और विस्मय से भरे इस वातावरण में जब कभी गुलाब की दृष्टि किसी युवक की दृष्टि से दो-चार हो जाती तो वह युवक उस चकोर के समान घायल हो जाता जिसने चंद्रमा को देखने के चक्कर में अग्नि की धधकती लपटें अधिक मात्रा में निगल ली हों। जिन युवकों की दृष्टि गुलाब से न मिल पाती, उनकी दशा उस सीपिका के समान दयनीय हो जाती जिसने लम्बे समय तक स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा की हो किंतु वर्षा की बूंदें उसके मुख में न गिरकर दूसरी सीपियों के मुँह में जा गिरी हों।

धीरे-धीरे गुलाब की समझ में आने लगा कि पथ पर निर्लज्ज होकर ताकते हुए श्रेष्ठि एवं सामंत पुत्र किस प्रसाद की अभिलाषा में श्रेष्ठि प्रसाद के समक्ष, क्यों याचक की मुद्रा धारण कर वहाँ खड़े रहते हैं। यह समझ में आते ही गुलाब सतर्क हो गई। उसकी ग्रीवा अब अनायास ही इधर-उधर नहीं लचकती। न ही उसके नेत्रों में वह उत्सुकता दिखाई देती कि क्या देखने को ये लोग यहाँ खड़े रहते हैं। इसलिये वह नतदृष्टि हो, अपने ही कदमों की चाप सुनती हुई मार्ग पर अग्रसर होती थी। आज भी ठीक वैसा ही हो रहा था।

आज उसे बालकृष्ण लाल के मंदिर में भजन गाने के लिये पहुँचना था और भगवान के सामने नृत्य भी करना था। गुंसाईजी ने पहले ही कह दिया था कि समय से पहले पहुँचे। फिर भी, न चाहते हुए भी उसे पर्याप्त विलम्ब हो चुका था। इसलिये आज वह और दिनों की अपेक्षा तेज गति से चल रही थी।

यह 1763 ईस्वी की एक सुहानी संध्या थी। इधर गुलाब तीव्र गति से मंदिर की ओर चली जा रही थी और उधर भगवान भुवन भास्कर अपने हृदय का समस्त अमृत धरती पर लुटा कर नवीन अमृत संचयन के लिये अस्ताचल की ओर गमन कर रहे थे। अचानक कुछ आवाजें वायुमण्डल में उभरीं- 'हटो, हटो, एक तरफ हटो। मारवाड़ धणी दरबार बापजी की सवारी पधार रही है।'

जिसने भी सुना, वह हाथ बांधकर एक तरफ खड़ा हो गया। दरबार बापजी की सवारी आने की सूचना से, वहाँ उपस्थित प्रजाजन में उत्साह और आनंद व्याप्त हो गया। प्रजावत्सल मारवाड़ नरेश महाराजा विजयसिंह का प्रताप ऐसा ही था। प्रजा उन्हें जी-जान से चाहती थी।

अभी राजकीय कारभारी, लोगों को मुख्य मार्ग से हटाकर एक तरफ कर ही रहे थे कि महाराजा की सवारी आ पहुँची। अपने चारों ओर हो रहे इस राजकीय उपक्रम से असंपृक्त गुलाब अपनी ही पदचाप सुनती हुई मार्ग के ठीक मध्य में दु्रत गति से चली जा रही थी। पता नहीं कैसे राजकीय कारभारियों का ध्यान उसकी ओर नहीं गया था, अन्यथा वह इस प्रकार मार्ग के ठीक मध्य में चलती हुई कदापि नहीें जा सकती थी!

-'होश में आ लड़की, मरने के लिये घोड़ों के सामने आ रही है क्या? देखती नहीं दरबार बापजी की सवारी निकल रही है!' अचानक एक चोबदार का ध्यान गुलाब की ओर गया और उसने गुलाब को टोका।

-'क्या है?' गुलाब ने दृष्टि उठाकर किचिंत रुष्ट स्वर में पूछा किंतु अगले ही क्षण वह अपने सामने लम्बी मूँछों वाले चोबदार को देखकर सहम गई।

-'नसा पता करके आई है क्या छोरी? परे हट।' बूढ़ा चोबदार चिल्लाया।
जब तक गुलाब वस्तुस्थिति को समझ पाती, मारवाड़ धणी का अश्व गुलाब के निकट होता हुए तेज गति से आगे निकल गया। गुलाब की साँसे जम गईं। अश्व उसके इतने निकट से निकला था कि यदि जरा सी भी चूक हुई होती तो वह अश्व से टकराकर गिर जाती। किसी तरह अपनी श्वांस पर नियंत्रण पाकर उसने बूढ़े चोबदार से क्षमा मांगी, चोबदार बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया, उसके पास गुलाब की क्षमा प्रार्थना सुनने का अवकाश नहीं था, उसे तो हर हालत में अश्व के निकट ही रहना था।