Thursday, December 31, 2009

बालकृष्ण लाल

मरुधरपति विजयसिंह, बालकृष्ण लाल की शरण में आकर अपने समस्त शोक और संताप को भूल गये। मंदिर के दिव्य अनुभूति प्रदान करने वाले निर्मल वातावरण ने उनके मन को एक नया आनंद प्रदान किया। आज उन्हें पहली बार ऐसा लगा कि इस आनंद की अनुभूति से वंचित रहकर, उनका अब तक का सारा जीवन व्यर्थ ही चला गया। वे क्यों निरर्थक प्रपंचों में पड़े हुए हैं! उन्हें तो यहाँ श्री हरि: के चरणों में बैठकर भगवान का कीर्तन करना चाहिये था।

महाराजा का मन अपने आपसे प्रश्नों पर प्रश्न करने लगा। क्यों वे तीरों, तोपों और तलवारों को लेकर मराठों के पीछे दौड़ते रहे हैं! क्यों वे सरदारों को दण्डित करके, उन्हें बलपूर्वक उन्हें अपने नियंत्रण में करने का प्रयास करते रहे हैं! क्या श्री हरि के चरणों में अनुराग लगाने से भी अधिक आनंददायक कार्य कोई मानव कर सकता है! गुरुदेव आत्माराम और धायभाई जगन्नाथ का शोक उनके मन से जाता रहा।

इधर महाराजा इस प्रकार अपने मन में प्रवेश करके स्वयं ही वार्तालाप करने में तल्लीन थे और उधर भगवान के समक्ष गुलाब का नृत्य आरंभ हुआ। काफी देर तो महाराजा ने उधर देखा भी नहीं। उन्हें आज असीम आनंद की प्राप्ति हुई थी और वे इस आनंद को भरपूर जीना चाहते थे। अचानक पल भर के लिये उनकी तंद्रा टूटी और उनका ध्यान देवविग्रह के समक्ष नृत्य करती हुई नृत्यांगना की ओर गया।

महाराजा को ऐसा लगा जैसे उन्हें कोई तेज झटका लगा है। नृत्यांगना क्या थी, प्रचण्ड रूप की जलती हुई प्रबल दीपशिखा थी या अपरिमित सौंदर्य का लहराता हुआ विशाल सागर, महाराजा समझ नहीं पाये। उन्हें अनुभव हुआ कि स्वयं सूर्य और चंद्र की किरणें देह धारण करके मंदिर के आंगन में नृत्य कर रही हैं। क्या कोई मानवी इतनी सुंदर हो सकती है! महाराजा ने स्वयं से ही प्रश्न किया। कुछ देर पहले का भाव और कुछ देर पहले का अलौकिक आनंद तिरोहित हो चुका था। वे फिर से इस लोक में लौट आये थे और उनका मन नेत्रों के समक्ष नृत्य कर रह सौंदर्य सागर को पी जाने के लिये तड़प उठा था।

मरुधरपति अपलक नृत्य करती हुई उसी दीपशिखा की ओर देखते रहे और तब तक देखते रहे जब तक कि नृत्यांगना नृत्य समाप्त करके एक ओर न बैठ गई। नृत्यांगना की सांसें बहुत तेजी से चल रही थी जिससे वक्ष बारबार लोहार की धौंकनी के समक्ष फूल और पिचक रहा था। स्वेद की दसियों धारायें उसके माथे से बहकर वक्ष को भिगोने लगी थीं।

काफी देर बाद महाराजा को भान हुआ कि नृत्य समाप्त हो चुका है। महाराजा अपने स्थान से उठे और नृत्यांगना की ओर बढ़ चले। महाराजा को इस प्रकार अचानक नृत्यांगना की ओर जाते देखकर मंदिर में उपस्थित पुजारियों और भक्तों के आश्चर्य का पार न रहा। विस्मय पूरित दृष्टियों से अनजान महाराजा की चाल ऐसी थी जैसे कोई मंत्रबिध्द सर्प, अपनी समस्त त्वरा भूलकर, केवल बीन की ओर देखता हुआ, आगे की ओर खिंचता ही चला जाता है। मरुधरपति अपने आसपास के वातावरण से इतने विमुख थे कि प्रजा के अभिवादनों की अवाजें भी उनके कानों में प्रवेश नहीं कर रही थीं। प्रजा, घणी खम्मा अन्नदाता! घणी खम्मा बापजी हुजूर! कहकर मुजरा करती रही और महाराजा उन्हें अनसुना-अनदेखा करते हुए ठीक गुलाब के सामने जा खड़े हुए।

-'खड़ी होकर मुजरा कर छोरी, तू इस समय नौ कोटि मारवाड़ के धणी, कमधजिया राठौड़, वीरकुल शिरोमणि, महाराजाधिराज विजयसिंह बापजी के सामने खड़ी है।' उसी बूढ़े चोबदार ने उत्तेजित स्वर में महाराजा का विरुद बखाना जिसने गुलाब को कुछ देर पूर्व मार्ग में भी धिक्कारा था। बूढ़ा चोबदार हैरान था, जाने कैसी उज्जड लड़की है! इसे दुनियादारी और रीत रिवाज का कुछ भी ध्यान नहीं!

चोबदार की बात सुनकर काँप गई गुलाब। वह हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई और किसी तरह सिर झुकाकर महाराजा को खम्मा घणी अन्नदाता, कहा। वह नहीं जानती थी कि महाराजा को मुजरा कैसे किया जाता है।

-'कौन हो तुम ?' महाराजा की आवाज इतनी गहन गंभीर हो रही थी मानो किसी गहरे कुएँ से आ रही हो।

-'मैं वडारण हूँ बापजी।' गुलाब ने कँपकँपाती आवाज में प्रत्युत्तर दिया। महाराजा को लगा कि फूंक के प्रहार से किसी दिये की लौ कांप उठी है।

-'किसकी वडारण है ?' महाराजा ने फिर पूछा।

-'मैं..ऽऽ...।' जैसे ही महाराजा से उसकी दृष्टि मिली, गुलाब की बुध्दि ने उसका साथ छोड़ दिया। स्वयं दरबार बापजी को इस तरह बात करते हुए देखकर, मारे घबराहट के वह अपने स्वामी का नाम ही भूल गई। उसके माथे पर पसीना छलछला आया।

-'बापजी सरकार! यह, सेठ अणदाराम भूरट की वडारण है, भजन बहुत अच्छे गाती है।' भीड़ में से किसी ने उत्तर दिया।

-'अच्छा! आना किसी दिन गढ़ में।' इतना कहकर महाराजा ने बालकृष्ण लाल को प्रणाम किया और अपने अश्व की ओर मुड़ गये।

इस समय महाराजा की स्थिति आसव पिये हुए व्यक्ति के जैसी हो रही थी। उन्होंने स्वयं भी अनुभव किया कि उनके पैर धरती पर सीधे नहीं रखे जा रहे हैं। वे यहाँ से कदापि नहीं हटना चाहते थे किंतु भीड़ में से अचानक आई आवाज से उन्हें इस बात का भान हो गया था कि वे इस समय मंदिर में अपनी प्रजा के समक्ष खड़े हैं। थोड़ी ही देर में महाराजा अश्व पर सवार होकर वहाँ से चले गये। मरुधरपति चले तो जा रहे थे किंतु उनकी आत्मा, उनका मन, उनका मस्तिष्क सब कुछ बालकृष्ण लाल के मंदिर में रह गया था। वह तो केवल शरीर था जो अश्व पर बैठकर गढ़ की ओर चला जा रहा था।

गुलाब हैरान थी। उसने नेत्र उठाकर देखा, भीड़ उसी की ओर विस्फारित नेत्रों से देख रही थी। अचानक ही घटित हो गये इस दृश्य को देखकर वहाँ उपस्थित श्रेष्ठि-पुत्रों और सामंत-पुत्रों के चेहरों की आभा जाती रही। वे अच्छी तरह समझ रहे थे कि आज तो नलिनी को स्वयं सूर्य ने देख लिया था, अब अपरिमित यौवन के गहन उपवन में उज्जड भ्रमरों का स्थान ही क्या शेष बचा था!

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