Thursday, December 31, 2009

अणदाराम की वडारण

गोल चेहरा, तीक्ष्ण नासिका, नैसर्गिक गह्वर युक्त उन्नत चिबुक और भरे हुए कपोल! रंग ऐसा जैसे किसी ने मक्खन में गुलाब पीस दिये हों। देखने वाले हैरान रह जाते, लड़की है या रूप की पिटारी! यवन देश की राजकुमारियों जैसे उसके सुनहरे केशों और मयूरी जैसी पतली और लम्बी ग्रीवा को देखकर तो हर कोई स्तम्भित रह जाता। मत्स्याकार नीली ऑंखों में काजल की स्थूल रेखाएँ बड़े-बड़े ज्योतिषियों को विस्मय में डाल देतीं। क्या शनि ने मीन में वास किया है! जब तक वे इस युति पर कुछ विचार कर पाते, गुलाब आगे बढ़ जाती। काफी देर तक सोचने के बाद ज्योतिषी केवल इतना कह पाते- अवश्य ही मीन का शनि इसे राजयोग देगा।

दर्शक की ऑंखों में लबालब भरी हैरानी से पूर्णत: असंपृक्त सेठ अणदाराम की वडारण गुलाब, अपनी सुदीर्घ ग्रीवा को विशेष मुद्रा में इधर-उधर घुमाती हुई सर्र से आगे निकल जाती। जैसे कोई मयूरी, उपवन के किसी कुंज की ओट से अचानक प्रकट होकर तेजी से दूसरे झुरमुट की ओर उड़ गई हो। जब वह सेठ अणदाराम भूरट की हवेली से गंगश्यामजी के मंदिर के लिये निकलती तो मार्ग पर उसे देखने वालों की भीड़ सी लग जाती। कुछ युवक तो काफी देर पहले ही मार्ग पर आ जमते मानो द्वितीया के चन्द्रमा के उदय होने की प्रतीक्षा कर रहे हों।

जब वह हवेली से बाहर निकलकर पथरीले और किंचित् सर्पिलाकार मार्ग पर दिखाई देती तो बहुत से विकारी नेत्र मर्यादा भूलकर अपलक उसे निहारने लगते। बहुत से लोग उत्सुकतावश उन युवकों को देखने के लिये खड़े हो जाते जो अणदाराम की हवेली से निकलने वाले चंद्रमा की प्रतीक्षा में, पथ पर विकल मुद्रा में खड़े होते। गुलाब भी उन लोगों को अत्यंत विस्मय से देखती, क्या देखते हैं ये लोग!

कौतूहल और विस्मय से भरे इस वातावरण में जब कभी गुलाब की दृष्टि किसी युवक की दृष्टि से दो-चार हो जाती तो वह युवक उस चकोर के समान घायल हो जाता जिसने चंद्रमा को देखने के चक्कर में अग्नि की धधकती लपटें अधिक मात्रा में निगल ली हों। जिन युवकों की दृष्टि गुलाब से न मिल पाती, उनकी दशा उस सीपिका के समान दयनीय हो जाती जिसने लम्बे समय तक स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा की हो किंतु वर्षा की बूंदें उसके मुख में न गिरकर दूसरी सीपियों के मुँह में जा गिरी हों।

धीरे-धीरे गुलाब की समझ में आने लगा कि पथ पर निर्लज्ज होकर ताकते हुए श्रेष्ठि एवं सामंत पुत्र किस प्रसाद की अभिलाषा में श्रेष्ठि प्रसाद के समक्ष, क्यों याचक की मुद्रा धारण कर वहाँ खड़े रहते हैं। यह समझ में आते ही गुलाब सतर्क हो गई। उसकी ग्रीवा अब अनायास ही इधर-उधर नहीं लचकती। न ही उसके नेत्रों में वह उत्सुकता दिखाई देती कि क्या देखने को ये लोग यहाँ खड़े रहते हैं। इसलिये वह नतदृष्टि हो, अपने ही कदमों की चाप सुनती हुई मार्ग पर अग्रसर होती थी। आज भी ठीक वैसा ही हो रहा था।

आज उसे बालकृष्ण लाल के मंदिर में भजन गाने के लिये पहुँचना था और भगवान के सामने नृत्य भी करना था। गुंसाईजी ने पहले ही कह दिया था कि समय से पहले पहुँचे। फिर भी, न चाहते हुए भी उसे पर्याप्त विलम्ब हो चुका था। इसलिये आज वह और दिनों की अपेक्षा तेज गति से चल रही थी।

यह 1763 ईस्वी की एक सुहानी संध्या थी। इधर गुलाब तीव्र गति से मंदिर की ओर चली जा रही थी और उधर भगवान भुवन भास्कर अपने हृदय का समस्त अमृत धरती पर लुटा कर नवीन अमृत संचयन के लिये अस्ताचल की ओर गमन कर रहे थे। अचानक कुछ आवाजें वायुमण्डल में उभरीं- 'हटो, हटो, एक तरफ हटो। मारवाड़ धणी दरबार बापजी की सवारी पधार रही है।'

जिसने भी सुना, वह हाथ बांधकर एक तरफ खड़ा हो गया। दरबार बापजी की सवारी आने की सूचना से, वहाँ उपस्थित प्रजाजन में उत्साह और आनंद व्याप्त हो गया। प्रजावत्सल मारवाड़ नरेश महाराजा विजयसिंह का प्रताप ऐसा ही था। प्रजा उन्हें जी-जान से चाहती थी।

अभी राजकीय कारभारी, लोगों को मुख्य मार्ग से हटाकर एक तरफ कर ही रहे थे कि महाराजा की सवारी आ पहुँची। अपने चारों ओर हो रहे इस राजकीय उपक्रम से असंपृक्त गुलाब अपनी ही पदचाप सुनती हुई मार्ग के ठीक मध्य में दु्रत गति से चली जा रही थी। पता नहीं कैसे राजकीय कारभारियों का ध्यान उसकी ओर नहीं गया था, अन्यथा वह इस प्रकार मार्ग के ठीक मध्य में चलती हुई कदापि नहीें जा सकती थी!

-'होश में आ लड़की, मरने के लिये घोड़ों के सामने आ रही है क्या? देखती नहीं दरबार बापजी की सवारी निकल रही है!' अचानक एक चोबदार का ध्यान गुलाब की ओर गया और उसने गुलाब को टोका।

-'क्या है?' गुलाब ने दृष्टि उठाकर किचिंत रुष्ट स्वर में पूछा किंतु अगले ही क्षण वह अपने सामने लम्बी मूँछों वाले चोबदार को देखकर सहम गई।

-'नसा पता करके आई है क्या छोरी? परे हट।' बूढ़ा चोबदार चिल्लाया।
जब तक गुलाब वस्तुस्थिति को समझ पाती, मारवाड़ धणी का अश्व गुलाब के निकट होता हुए तेज गति से आगे निकल गया। गुलाब की साँसे जम गईं। अश्व उसके इतने निकट से निकला था कि यदि जरा सी भी चूक हुई होती तो वह अश्व से टकराकर गिर जाती। किसी तरह अपनी श्वांस पर नियंत्रण पाकर उसने बूढ़े चोबदार से क्षमा मांगी, चोबदार बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया, उसके पास गुलाब की क्षमा प्रार्थना सुनने का अवकाश नहीं था, उसे तो हर हालत में अश्व के निकट ही रहना था।

No comments:

Post a Comment