Thursday, December 31, 2009

उपन्यास के कुछ अंश

नव कोटि मारवाड़ के धणी

थार मरूस्थल के पूर्वी छोर पर ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी से, रणबांकुरे राठौड़ों का शासन चला आ रहा था। 1678 इस्वी में जमरूद के मोर्चे पर मारवाड़ रियासत के पन्द्रहवें राठौड़ राजा जसवंतसिंह के निधन के बाद औरंगजेब ने मारवाड़ रियासत को खालसा कर लिया अर्थात् प्रत्यक्षत: अपनी जागीर में सम्मिलित कर लिया। जब स्वर्गीय महाराजा की गर्भवती रानियाँ जमरूद से मारवाड़ को लौट रही थीं तब मार्ग में दोनाें रानियों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। उनमें से एक पुत्र दलथंभन तो मार्ग में ही काल का ग्रास बन गया किंतु दूसरा शिशु अजीतसिंह जीवित रहा जिसे राठौड़ सरदारों ने अपना राजा घोषित किया। औरंगजेब ने इस शिशुराजा तथा उसकी माताओं को छल से दिल्ली बुलाकर बंदी बना लिया। जब औरंगजेब ने शिशु-राजा की सुन्नत करके उसे मुसलमान बनाना चाहा तब दिवंगत महाराजा के विश्वस्त सिपाही मरने मारने पर उतारू हो गये।

राठौड़ दुर्गादास, खीची मुकुंदास आदि सामंतों ने शिशु-राजा को किसी तरह औरंगजेब की कैद से छुड़वा लिया। जसवंतसिंह की विधवा रानियों ने मर्दाना वेश पहनकर मुगल सिपाहियों का सामना किया और रणखेत रहीं। राठौड़ सैनिकों ने अपने दिवंगत महाराजा की महारानियों के पार्थिव शरीर यमुनाजी में बहाये और किसी तरह लड़ते भिड़ते दिल्ली से बाहर आ गये। राठौड़ों ने शिशु-राजा को मारवाड़ रियासत के दक्षिण में स्थित छोटी सी सिरोही रियासत की पहाड़ियों में छिपा दिया। औरंगजेब जीवन भर राठौड़ों के इस राजा को ढूंढता रहा किंतु राजा को पकड़ना तो दूर उसकी छाया तक को न छू सका।
अपने राजा को फिर से मारवाड़ की राजगद्दी दिलवाने के लिये राठौड़ सरदार उन्तीस बरस तक घोड़ों की पीठों पर बैठे रहे और मुगल थाने उजाड़ते रहे। मारवाड़ का चप्पा-चप्पा उनके घोड़ों की टापों से गूंजता रहा। औरंगजेब की मृत्यु होने पर यही अजीतसिंह जोधपुर के राजा हुए। जब फर्रूखसीयर मुगलों का बादशाह हुआ तो उसने महाराजा अजीतसिंह को विवश करके उनकी पुत्री इंद्रकुंवरी के साथ विवाह किया। महाराजा अजीतसिंह ने बेटी तो दे दी किंतु मन नहीं दिया। अवसर मिलते ही उन्होंने दिल्ली के लाल किले में फर्रूखसीयर की हत्या करवाई और इंद्रकुंवरी को जोधपुर लाकर शुध्दिकरण करके उसका दूसरा विवाह किया।

मुगल सान्निध्य के प्रभाव से, जयपुर नरेश के षड़यंत्र से और मारवाड़ के दुर्भाग्य से 23 जुलाई 1724 को अजीतसिंह के पुत्र बखतसिंह ने अपने बड़े भाई अभयसिंह के उकसाने पर, नींद में सोते हुए अपने पिता और उनकी पड़दायत गंगा की हत्या कर दी। महाराजा अजीतसिंह की मृत देह के साथ 6 रानियाँ, 20 दासियाँ, 9 उड़दा बेगणियाँ, 20 गायनें तथा 2 हुजूरी बेगमें सती हुईं। पिता की हत्या के बाद अभयसिंह और बखतसिंह ने मारवाड़ आपस में बाँट लिया। अभयसिंह जोधपुर का राजा हुआ और अभयसिंह नागौर का। जुलाई 1749 ईस्वी में महाराजा अभयसिंह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र रामसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा।

रामसिंह प्रतिभा-सम्पन्न राजा नहीं था तथा राठौड़ सरदारों के साथ बुरा बर्ताव करता था। इसलिये राठौड़ सरदारों के उकसाने पर रामसिंह के चाचा बखतसिंह ने मेड़ता के युध्द में उसे हराकर जून 1751 में जोधपुर की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। रामसिंह मराठों की शरण में पहुँचा किंतु मराठे उसे जोधपुर नहीं दिलवा सके। सितम्बर 1752 में महाराजा बखतसिंह की भी मृत्यु हो गई। माना जाता है कि किशनगढ़ रियासत की राठौड़ राजकुमारी एजनकंवर जो कि जयपुर नरेश माधोसिंह को ब्याही गई थी, ने एक विषबुझी पोषाक उपहार के रूप में महाराजा बखतसिंह को भेजी। 21 सितम्बर 1752 के दिन, इस विषबुझी पोषाक को पहनने से महाराजा बखतसिंह की मृत्यु हो गई। उस समय महाराजा का पुत्र विजयसिंह मारोठ के सैनिक शिविर में था।

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