Thursday, December 31, 2009

काकड़की की पराजय

जिस समय जोधपुर के निष्कासित महाराजा रामसिंह को महाराजा बखतसिंह के निधन का समाचार मिला, उस समय वह मंदसौर में था। उसके भाग्य से उन्हीं दिनों पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने छोटे भाई रघुनाथ राव, जयप्पा सिंधिया तथा मल्हारराव होलकर को उत्तर भारत की रियासतों से चौथ वसूली के लिये भेजा। रामसिंह ने इस सुनहरे अवसर को पहचाना और मल्हारराव होलकर से सम्पर्क साधा। होलकर ने यह कार्य जयप्पा सिंधिया को सौंपा।

जयप्पा अपने छोटे भाई दत्तााजी सिन्धिया के साथ दिल्ली से नारनौल, रेवाड़ी, सांभर होता हुआ अजमेर की ओर बढ़ा। अजमेर उन दिनों जोधपुर के राठौड़ों के अधिकार में था। रामसिंह, जयप्पा सिन्धिया के साथ लगा हुआ था। उसने मार्ग में किशनगढ़ तथा आसपास के इलाकों को लूट लिया।

जब महाराजा विजयसिंह को जयप्पा सिन्धिया के आने का समाचार मिला तो महाराजा ने राठौड़ों की राजधानी जोधपुर से लगभग 60 मील दूर मेड़ता पहुँचकर वहाँ उन्हें रोकने का निर्णय लिया। महाराजा ने अपनी सहायता के लिये बीकानेर और किशनगढ़ के राठौड़ राजाओं को भी बुलवा लिया। महाराजा विजयसिंह ने अजमेर नगर में नियुक्त सेना को भी मेड़ता बुलावा लिया किंतु बीठली गढ़ अपने दुर्गपति के नियंत्रण में ही रखा।

सिंधिया ने राठौड़ों द्वारा रिक्त किये गये अजमेर नगर पर अधिकार करके पुष्कर में आकर अपने डेरे जमाये ताकि घोड़ों और ऊँटों को पानी की कमी नहीं रहे। इसके बाद वह तेज गति से मेड़ता की ओर बढ़ा। मार्ग में गांगरड़ा गांव के निकट दोनों राठौड़ों और मराठों में छोटी सी मुठभेड़ हुई जिसमें राठौड़ों को नुक्सान उठाना पड़ा। जब जयप्पा सिंधिया की सेनाएं मेड़ता के निकट पहुँची तो महाराजा विजयसिंह ने मेड़ता से आगे बढ़कर काकड़की गांव के निकट तलवारों की धार पर मराठों का स्वागत करने का निश्चय किया। महाराजा स्वयं सेना के हरावल में रहा और उसने अपने दोनों मित्र राठौड़ राजाओं को अपने दायें-बायें रखा।

14 सितम्बर 1754 की दोपहर में जब इतनी भीषण गर्मी पड़ रही थी कि सफेद हिरण भी झुलसकर काले पड़ चुके थे, हिरणखुरी गांव के पास मराठों को राठौड़ों का तोपखाना दिखाई दिया। इस विशाल तोपखाने को देखकर मराठों के प्राण सूख गये। उन्होंने तुरंत राठौड़ों के सामने का मार्ग खाली कर दिया और अपनी घुड़सेना को दो भागों में बांटकर राठौड़ों के दायें-बायें हो गये। सामने का मार्ग खाली देखकर विजयसिंह तेजी से आगे बढ़ा। उसे पता नहीं था कि मराठे उसकी सेना को दोनों पार्श्वों से घेर रहे हैं। इधर महाराजा युध्द की चाह में आगे बढ़ा जा रहा था और उधर उसके तोपखाने को लेकर चल रहे तोपगाड़ी वालों ने मार्ग में एक तालाब को देखकर महाराजा को सूचित किये बिना अपने बैल, तोपगाड़ियों से खोल दिये और बैलों को पानी पिलाने के लिये रुक गये।

महाराजा यही समझता रहा कि तोपखाना उसके साथ चल रहा है और मराठे अभी उससे दूर हैं जबकि मराठे उसे दोनों पर्श्वों से घेर चुके थे और तोपखाना पीछे रह गया था। मराठा घुड़सवार पार्श्व से सारी गतिविधियों को सावधानी पूर्वक देख रहे थे। जैसे ही तोपखाने और महाराजा के बीच पर्याप्त दूरी हो गई, मराठा घुड़सवार दोनों पार्श्वों से निकलकर तेजी से राठौड़ों के तोपखाने पर झपटे।

मराठों को सन्निकट देखकर तोपगाड़ी हांकने वालों ने चाहा कि वे अपने बैलों को तोपगाड़ी में जोतकर आगे बढ़ें किंतु मराठों ने फुर्ती से तोपखाने पर अधिकार कर लिया। यह देखकर राठौड़ों की चंदावल सेना मराठों पर झपटी। उधर महाराजा विजयसिंह को अपने आदमियों की मूर्खता और मराठों की कारस्तानी का पता चला किंतु परिस्थिति पर शोक करने का समय न जानकर वह अपनी हरावल सेना के साथ पीछे मुड़कर तेजी से मराठों पर झपटा।

इस प्रकार दोनों पक्षों में तोपखाने पर अधिकार करने को लेकर भयानक संघर्ष छिड़ गया। राठौड़ों ने प्रचण्ड वेग से आक्रमण करके मराठों को दूर तक खदेड़ दिया किंतु तब तक काफी संख्या में तोपगाड़ियों को खींचने वाले बैल मारे गये और तोपों को खींचकर ले जाना कठिन हो गया।

उसी समय जयप्पा सिन्धिया ने महाराजा की मुख्य सेना को आ घेरा। अब स्थिति यह बन गई कि चारों तरफ मराठे थे और बीच में तोपखाने को घेर कर राठौड़ों की सेना खड़ी थी। इस कारण तोपखाने को काम में लेना संभव नहीं रह गया। मुश्किल से हाथ आये इस अवसर को मराठे हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। राठौड़ वीर भी युध्द भूमि में एक साथ तीन राठौड़ राजाओं को शत्रुओं से घिरा हुआ देखकर मरने मारने पर उतारू हो गये। भयानक रक्तपात हुआ। पूरी भूमि लोथों से भर गई और आकाश में चीलें मण्डराने लगीं। देखते ही देखते गीदड़ों की टोलियाँ मृत सैनिकों के शवों को खाने के लिये जंगल से निकल आईं।

काफी देर तक हुए भीषण रक्तपात के बाद राठौड़ों की सेना के पाँव उखड़ने लगे। वे बड़ी संख्या में अपने साथियों को खो चुके थे। अब अधिक समय तक मैदान में टिके रहने का अर्थ था राठौड़ वीरों का सर्वनाश। इसलिये उन्होंने रणक्षेत्र से हटना आरंभ किया। जयप्पा सिंधिया को इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। उसने अपनी घुड़सवार सेना का एक भाग केवल इसी कार्य के लिये सुरक्षित रखा था कि जब राठौड़ सैनिक मैदान से हटने लगें तो मराठा सैनिक दूर तक उनका पीछा करें तथा यथा संभव उनका संहार करें। महाराजा विजयसिंह मराठों की रक्षित अश्व सेना का प्रतिरोध नहीं कर पाया। उसके लिये रणक्षेत्र में टिके रहना प्रतिपल भारी होता जा रहा था। उसने अपने मित्र राठौड़ राजाओं और सामंतों के साथ रणक्षेत्र छोड़ने का निर्णय लिया और मेड़ता की ओर खिसकना आरंभ किया।

मराठों की रक्षित अश्व सेना ने युध्द क्षेत्र से निकल रहे राठौड़ राजाओं पर पीछे से भयानक आक्रमण किया। पाली का ठाकुर प्रेमसिंह चांपावत इस समय अपने स्वामी के नमक का ऋण चुकाने के लिये सामने आया। उसने अपनी सेना लेकर महाराजा विजयसिंह और मराठों के बीच तलवारों की दीवार खड़ी कर दी। जब तक मराठे इस दीवार को लांघ कर आगे बढ़ पाये तब तक महाराजा विजयसिंह और उसके साथी राठौड़ राजा सुरक्षित रूप से मेड़ता पहुँच चुके थे। प्रेमसिंह चांपावत वहीं रणखेत रहा।

मेड़ता पहुँच कर भी महाराजा विजयसिंह निश्चिंत नहीं हो सका। उसका तोपखाना काकड़की के पास छूट चुका था। उसके लगभग सारे बड़े सरदार मारे जा चुके थे। मराठे अब उससे केवल एक रात दूर रह गये थे। प्रात: होते ही मराठों का आ धमकना निश्चित था। मेड़ता का मालकोट, राठौड़ों की रक्षा करने में असमर्थ था। इसलिये महाराजा विजयसिंह ने निर्णय लिया कि वह मालकोट की बजाय नागौर के दुर्ग में मराठों के विरुध्द अगला मोर्चा बांधेगा।

रात्रि के अंतिम प्रहर में तीनों राठौड़ राजाओं ने मालकोट छोड़ दिया। किशनगढ़ के राठौड़ महाराजा बहादुरसिंह ने तो वहीं से अपनी राजधानी किशनगढ़ की राह ली जबकि बीकानेर महाराजा गजसिंह, ताऊसर तक महाराजा विजयसिंह और साथ गये। यहाँ से नागौर का दुर्ग केवल तीन मील दूर रह गया था। महाराजा गजसिंह ने अपने कुटुम्बी राठौड़ राजा को सुरक्षित हुआ जानकर ताऊसर से ही बीकानेर के लिये विदा ली। वह चाहता तो था कि वह भी नागौर दुर्ग में रुककर महाराजा विजयसिंह का साथ दे किंतु उसे भय था कि ईश्वर न करे, यदि दुर्दान्त मराठे नागौर का दुर्ग भी गिरा दें तो कम से कम बीकानेर के दुर्ग की छत तो राठौड़ों के सिर पर बनी रहे।

No comments:

Post a Comment