Thursday, December 31, 2009

दुर्दिन

दिन निकलते ही जयप्पा सिंधिया ने मालकोट को घेर लिया। विजयसिंह के आदमी मालकोट को भीतर से बंद करके बैठे हुए थे। इसलिये काफी देर तक सिंधिया को पता नहीं चल सका कि पंछी तो रात के अंधेरे में ही उड़ चुके, खाली पिंजरा ही शत्रु को भरमा रहा है। जब तक सिंधिया को वास्तविकता का ज्ञान हुआ तब तक तीनों राठौड़ राजा सुरक्षित रूप से अपने गंतव्यों तक पहुँच चुके थे। सिंधिया ने क्रोध में भरकर मेड़ता को लूट लिया और वहाँ अपना थाना स्थापित करके नागौर के लिये चल पड़ा। वह महाराजा विजयसिंह को संभलने का अवसर नहीं देना चाहता था।

उधर महाराजा विजयसिंह ने एक भी क्षण व्यर्थ गंवाये बिना, अपने सैनिकों को नागौर दुर्ग की मरम्मत करने पर लगा दिया और जितनी अधिक मात्रा में रसद सामग्री एकत्रित करना संभव हो पाया, उसे दुर्ग में एकत्रित करके भण्डारों में रखवा दिया। उसके आदमी तेजी से गोला बारूद भी जुटाने लगे। महाराजा जानता था कि इस बार की लड़ाई राठौड़ों का अस्तित्व बचाने के लिये होगी। इस लड़ाई के दूरगामी परिणाम होंगे। या तो राठौड़ राजपूताने की राजनीति के परिदृश्य से सदैव के लिये हट जायेंगे या फिर यहाँ से वे अपनी सफलताओं का नया इतिहास लिखेंगे।

अभी अधिक दिन नहीं बीते होंगे कि जयप्पा सिंधिया का तोपखाना नागौर तक आ धमका। जयप्पा ने नागौर का मैदानी दुर्ग चारों ओर से घेर लिया। अहिच्छत्रपुर के नाम से विख्यात राठौड़ों का यह पुराना दुर्ग था। उतना ही पुराना, जितने कि मण्डोर और जालोर के दुर्ग थे। यदि जोधपुर दुर्ग राठौड़ों के सिर का मुकुट था तो नागौर दुर्ग राठौड़ों की नाक था। मराठे इसी नाक तक आ पहुँचे थे।

तोपखाना नागौर पहुँच जाने के बाद जयप्पा ने अपनी सेना के चार भाग किये। एक सेना को उसने नागौर दुर्ग तक आने के समस्त रास्तों पर नियत किया जिससे दुर्ग के भीतर रसद, हथियार, गोला-बारूद और सैनिक न पहुँचने पायें। इसके बाद उसने अपने पुत्र जनकोजी के नेतृत्व में मराठों की एक सेना राठौड़ों की राजधानी जोधपुर के लिये रवाना की। जयप्पा ने एक सेना फलौदी के लिये तथा एक सेना जालोर के लिये भी रवाना की ताकि राठौड़ों से ये दुर्ग छीनकर महाराजा को घुटने टेकने के लिये विवश किया जा सके।

यह एक भयानक योजना थी। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि राठौड़ों की राजधानी सहित सारे प्रमुख दुर्ग घेर लिये जायें और राठौड़ों के राजा को राजधानी से दूर, नागौर के दुर्ग में अवरुध्द कर दिया जाये। इससे सम्पूर्ण राठौड़ प्रभुसत्ताा ही खतरे में पड़ गई थी। इस प्रकार दुर्दान्त मराठा सेनापति जयप्पा सिन्धिया ने अपनी चारों सेनाओं को अलग-अलग काम पर लगा दिया और स्वयं महाराजा विजयसिंह को अहिच्छत्रपुर से बाहर निकालने का उपाय करने लगा।

जयप्पा के पुत्र जनकोजी सिंधिया ने नागौर से निकलकर जोधपुर का गढ़ आ घेरा। उसने गढ़ पर बारूद और अग्नि की बरसात कर दी किंतु गढ़ में स्थित सूरतसिंह चांपावत तथा उसके साथियों ने इस अग्नि वर्षा की परवाह नहीं की और जनकोजी जोधपुर गढ़ को हाथ नहीं लगा सका। फिर भी वह गढ़ को घेर कर बैठा रहा।

जालौर की तरफ गई हुई मराठा सेना जालौर नगर पर अधिकार करने में सफल रही किंतु जालौर का गढ़ नहीं ले सकी। वह कनकाचल पहाड़ी की तलहटी में डेरा जमा कर बैठ गई। छोटा पंछी भी उस रास्ते से होकर दुर्ग तक नहीं पहुंच सकता था। उधर अजमेर नगर पर भी मराठों की जो सेना अधिकार किये हुए बैठी थी, कुछ समय बाद वह गढ़ बीठली पर अधिकार करने में सफल रही।

इस प्रकार महाराजा विजयसिंह के पास अब केवल नागौर और जोधपुर के गढ़ रह गये। जब दिल्ली में स्थित रघुनाथराव, मल्हारराव होलकर तथा सखाराम बापू आदि मराठा सरदारों ने सुना कि जयप्पा ने नागौर के दुर्ग में राठौड़ों के महाराजा को घेर रखा है तब वे भी बड़ी संख्या में मराठों सैनिकों को एकत्रित करके नागौर के लिये रवाना हो गये।

यह मारवाड़ के लिये सचमुच बुरे दिन थे। चारों दिशाओं से शत्रु सेनाएं काले बादलों की तरह उमड़-घुमड़ कर आ रही थीं। दु:ख की ये काली बदलियाँ सरलता से मारवाड़ और महाराजा विजयसिंह का साथ छोड़ने वाली नहीं थी।

उदयपुर के महाराणा तक भी ये सारे समाचार पहुँचे। उन्होंने सलूम्बर के रावत जैतसिंह चूण्डावत को अपना दूत बनाकर मराठों के पास भेजा ताकि दोनों पक्षों में समझौता करवाया जा सके। जैतसिंह ने नागौर पहुँचकर दोनों पक्षों से सम्पर्क किया। उसके कहने पर महाराजा विजयसिंह ने विजैभारती और राजसिंह चौहान को जयप्पा से संधि वार्ता करने के लिये नियत किया। विजयसिंह ने मराठों के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि मराठे मारवाड़ छोड़कर चले जायें तो उन्हें महाराजा की ओर से पचास लाख रुपये दिये जायेंगे तथा अपदस्थ महाराजा रामसिंह को मारवाड़ रियासत में सम्मानजनक जागीर दे दी जायेगी।

मराठों ने महाराजा के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उनकी जिद थी कि वे जोधपुर के अपदस्थ महाराजा रामसिंह को फिर से जोधपुर की गद्दी पर बैठायेंगे जबकि राठौड़ों की जिद थी कि हमारा राजा विजयसिंह ही होगा, निकम्मा और अयोग्य रामसिंह कदापि नहीं। महाराजा विजयसिंह ने दिल्ली से नागौर की तरफ बढ़े चले आ रहे रघुनाथराव से भी सम्पर्क किया। जब जयप्पा सिंधिया को इस बात का पता चला तो वह महाराजा के दूतों पर बुरी तरह बिगड़ा और संधि वार्ता की प्रक्रिया बंद कर दी। जब रघुनाथराव और मल्हारराव होलकर को सिंधिया के इस रूखे व्यवहार का पता चला तो वे रुष्ट होकर, मारवाड़ आने की बजाय रूपनगर के लिये मुड़ गये। इससे महाराजा ने चैन की सांस ली और जयप्पा से छुटकारा पाने का उपाय ढूंढने लगा।

महाराजा विजयसिंह को नागौर दुर्ग में आये हुए अब नौ माह हो चुके थे। दुर्ग में रसद सामग्री दिन प्रति दिन कम होते हुए लगभग समाप्त होने को थी। महाराजा की चिंता का पार न था। मारवाड़ हाथ से जाती दिख रही थी और शत्रु के शमन का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। जब घर में दरार होती है तो शत्रु उतनी ही आसानी से उसमें घुसपैठ कर लेते हैं जितनी आसानी से इस समय मराठे मारवाड़ में घुसकर बैठ गये थे। अपदस्थ महाराजा रामसिंह और नये महाराजा विजयसिंह की लड़ाई का लाभ दुर्दान्त मराठे उठा रहे थे और मारवाड़ विनाश के कगार पर आ पहुँची थी। यह निश्चित था कि यदि कुछ ही दिनों में कोई चमत्कार नहीं हुआ तो मारवाड़ को मराठों के मुँह में जाने से नहीं बचाया जा सकता था।

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